मानवता के लिए संभलने का वक्त
इन दिनों नीला आकाश, रात को उसमें चमकते अनगिनत तारे और सुबह चिडिय़ों की चहचहाहट मुझे मेरे बचपन की ओर खींच ले जाती है।
दिल और दिमाग से मैं खुद को वर्षों पीछे गंगा-गंडक के संगम पर बसे छोटे से शहर खगडिय़ा में खड़ा पाता हूं। मैं ही क्यों गांवों में पले-बढ़े, लेकिन इस वक्त महानगरों का हिस्सा बने हजारों-हजार लोग भी शायद मेरा जैसा महसूस करते होंगे।
सड़कों पर गाडिय़ों का चलना तकरीबन बंद है। महानगरों में आवाजाही पर रोक ने ऐसा माहौल बना दिया है जो दूसरे जीवों के अधिकारों को सशक्त बना रहा है।
शहरी परिवेश में जिन पक्षियों का दर्शन दुर्लभ था, वे आज यह हर तरफ दिख रहे हैं।
ग्लोबल कार्बन प्रोजेक्ट से जुड़े वैज्ञानिकों का मानना है कि वैश्विक स्तर पर कार्बन उत्सर्जन में पांच फीसद या इससे भी ज्यादा की सुखद गिरावट आएगी।
इसके सही आंकड़े तो संकट खत्म होने के बाद के अध्ययनों से ही मिल सकेंगे, लेकिन इसका असर अभी भी महसूस किया जा सकता है। मसलन, दिल्ली एवं इसके आस-पास इस वक्त दिखने वाला नीला आसमान।
हवाई जहाजों के जमीन पर बने रहने, कारखानों के बंद होने और वाहनों के सड़कों से नदारद रहने से शायद ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में अभूतपूर्व गिरावट आई है।
वैश्वीकरण ने हमें प्राकृतिक न्याय के विपरीत संसाधनों का अत्यधिक शोषण करना सिखाया है। मानव जाति ने पारिस्थितिकी तंत्र संतुलन सिद्धांत के विपरीत नदियों एवं जंगली पर्यावासों का दोहन किया।
इसका खामियाजा समाज के अंतिम पंक्ति में खड़े लोगों को उठाना पड़ रहा है। इन दिनों केरल के कोझीकोड में मालाबार सिवेट का सड़क पर निकल आना,
दिल्ली-एनसीआर की सड़कों पर नीलगायों का विचरण करना, देहरादून शहर में हाथी का बेरोकटोक घूमना दिखाता है कि पक्षियों और जंगली जानवरों ने अपने पर्यावास की सीमाएं बढ़ा ली हैं।
नदी आज यह बताने की कोशिश कर रही है कि संयम और धीमी गति से चलने वाले मानव जीवन से दूसरे जीवों एवं प्राकृतिक संसाधनों को थोड़ी जगह और थोड़ा समय मिल जाता है, जिससे अंतत: मानव जीवन ही फायदे में रहता है।
कोरोना वायरस का प्रकोप एवं इससे बचने के लिए लगाया गया लॉकडाउन हम मनुष्यों को गहरा संदेश भी दे रहा है और शिक्षा भी।
अधिकतर सूक्ष्म जीवाणु जंगली जीवों को ही पोषिता बनाते हैं, लेकिन प्राकृतिक पर्यावासों में लगातार आ रही गिरावट से नाना प्रकार के जंगली जीव विलुप्त होने के कगार पर हैं।
नतीजन वातावरण में मौजूद वायरस अन्य पोषिता की तलाश करते हैं और मूल पोषिता के अभाव में मुनष्य उनका पोषिता बन जाता है।
मैं खुद वृद्धावस्था की ओर अग्रसर हूं, लेकिन मैं नहीं चाहता कि हमारा पर्यावरण कभी वृद्ध हो। इसके लिए पर्यावरण को निरंतर बायोडायवर्सिटी पार्क के रूप में संजीवनी देनी होगी। यही मनुष्यों को धरती पर अजर-अमर रखने में सक्षम होगी।
इस निर्देश की जरूरत इसलिए बढ़ गई थी, क्योंकि एक तो देश के कुछ हिस्सों में लॉकडाउन के प्रति अपेक्षित गंभीरता का परिचय नहीं दिया जा रहा है और दूसरे, आने वाले दिनों में बैसाखी, रंगोली बिहू, विशु, पोइला बैसाख, संक्राति आदि पर्व हैं।
वास्तव में राज्य सरकारों और उनके प्रशासन से ज्यादा आम लोगों को यह समझने की जरूरत है कि जब तक कोरोना वायरस के संक्रमण का खतरा टल नहीं जाता तब तक ऐसा कुछ नहीं किया जाना चाहिए जिससे किसी भी तरह का जमावड़ा लगे।
यदि कोरोना के खिलाफ लड़ाई कठिन हो गई है तो इस जमात के गैर जिम्मेदाराना रवैये के कारण ही।
नि:संदेह धार्मिक, सांस्कृतिक पर्वों और उनसे जुड़े किस्म-किस्म के आयोजनों की अपनी एक महत्ता है, लेकिन कोरोना वायरस के संक्रमण का खतरा जिस तरह सिर उठाए हुए है उसे देखते हुए समझदारी इसी में है कि ये आयोजन घर पर ही रहकर प्रतीकात्मक तरीके से मनाए जाएं।
नि:संदेह ग्रामीण इलाकों में फसल कटाई का काम तो करना ही होगा, लेकिन पूरी सावधानी के साथ। चूंकि हर तरह का जमावड़ा कोरोना वायरस के संक्रमण को बेलगाम करने वाला साबित हो सकता है
इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि कही-कहीं लॉकडाउन से प्रभावित लोगों की मदद के नाम पर ऐसे समूहों की ओर से जाने-अनजाने भीड़ जुटाने वाले काम कर दिए जा रहे हैं।
इसी तरह कई स्थानों पर सब्जी मंडियों अथवा राशन की दुकानों में भीड़ जुट जा रही है।
मानवता के लिए संभलने का वक्त
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इन दिनों नीला आकाश, रात को उसमें चमकते अनगिनत तारे और सुबह चिडिय़ों की चहचहाहट मुझे मेरे बचपन की ओर खींच ले जाती है।
दिल और दिमाग से मैं खुद को वर्षों पीछे गंगा-गंडक के संगम पर बसे छोटे से शहर खगडिय़ा में खड़ा पाता हूं। मैं ही क्यों गांवों में पले-बढ़े, लेकिन इस वक्त महानगरों का हिस्सा बने हजारों-हजार लोग भी शायद मेरा जैसा महसूस करते होंगे।
पहले जनता कर्फ्यू और फिर लॉकडाउन कोरोना वायरस से उपजी महामारी से बचने के लिए एहतियातन उठाया गया कदम है। फिलवक्त हम इंसानों के पदचाप ठहर गए हैं।
सड़कों पर गाडिय़ों का चलना तकरीबन बंद है। महानगरों में आवाजाही पर रोक ने ऐसा माहौल बना दिया है जो दूसरे जीवों के अधिकारों को सशक्त बना रहा है।
शहरी परिवेश में जिन पक्षियों का दर्शन दुर्लभ था, वे आज यह हर तरफ दिख रहे हैं।
ग्लोबल कार्बन प्रोजेक्ट से जुड़े वैज्ञानिकों का मानना है कि वैश्विक स्तर पर कार्बन उत्सर्जन में पांच फीसद या इससे भी ज्यादा की सुखद गिरावट आएगी।
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद यह अपनी तरह की पहली घटना होगी।
इसके सही आंकड़े तो संकट खत्म होने के बाद के अध्ययनों से ही मिल सकेंगे, लेकिन इसका असर अभी भी महसूस किया जा सकता है। मसलन, दिल्ली एवं इसके आस-पास इस वक्त दिखने वाला नीला आसमान।
बमुश्किल बीस दिन पहले यह धूल कणों और धुएं से मिश्रित काला और भयानक नजर आता था।
हवाई जहाजों के जमीन पर बने रहने, कारखानों के बंद होने और वाहनों के सड़कों से नदारद रहने से शायद ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में अभूतपूर्व गिरावट आई है।
वैश्वीकरण ने हमें प्राकृतिक न्याय के विपरीत संसाधनों का अत्यधिक शोषण करना सिखाया है। मानव जाति ने पारिस्थितिकी तंत्र संतुलन सिद्धांत के विपरीत नदियों एवं जंगली पर्यावासों का दोहन किया।
मानव ने विकास की दिशाहीन दौड़ मे पीने के पानी एवं शुद्ध वायु तक को भी नजरअंदाज किया। उसने प्रकृति की अनमोल धरोहर-जल एवं वायु का भी बाजारीकरण कर दिया।
इसका खामियाजा समाज के अंतिम पंक्ति में खड़े लोगों को उठाना पड़ रहा है। इन दिनों केरल के कोझीकोड में मालाबार सिवेट का सड़क पर निकल आना,
दिल्ली-एनसीआर की सड़कों पर नीलगायों का विचरण करना, देहरादून शहर में हाथी का बेरोकटोक घूमना दिखाता है कि पक्षियों और जंगली जानवरों ने अपने पर्यावास की सीमाएं बढ़ा ली हैं।
लगता है ये जीव अपने मूल पर्यावास पर अपना आधिपत्य जमा रहे हैं। आज यमुना नदी का साफ पानी लोगों के लिए आकर्षण का केंद्र होने के साथ कौतूहल का विषय भी बना हुआ है।
नदी आज यह बताने की कोशिश कर रही है कि संयम और धीमी गति से चलने वाले मानव जीवन से दूसरे जीवों एवं प्राकृतिक संसाधनों को थोड़ी जगह और थोड़ा समय मिल जाता है, जिससे अंतत: मानव जीवन ही फायदे में रहता है।
कोरोना वायरस का प्रकोप एवं इससे बचने के लिए लगाया गया लॉकडाउन हम मनुष्यों को गहरा संदेश भी दे रहा है और शिक्षा भी।
जीवन शैली में बदलाव, प्राकृतिक संसाधनों का सतत प्रयोग एवं वैज्ञानिक तरीकों से प्रकृति को फिर से स्थापित करना ही मानव जीवन को लंबे समय तक इस धरती पर जीवित रख सकता है।
अधिकतर सूक्ष्म जीवाणु जंगली जीवों को ही पोषिता बनाते हैं, लेकिन प्राकृतिक पर्यावासों में लगातार आ रही गिरावट से नाना प्रकार के जंगली जीव विलुप्त होने के कगार पर हैं।
नतीजन वातावरण में मौजूद वायरस अन्य पोषिता की तलाश करते हैं और मूल पोषिता के अभाव में मुनष्य उनका पोषिता बन जाता है।
मैं खुद वृद्धावस्था की ओर अग्रसर हूं, लेकिन मैं नहीं चाहता कि हमारा पर्यावरण कभी वृद्ध हो। इसके लिए पर्यावरण को निरंतर बायोडायवर्सिटी पार्क के रूप में संजीवनी देनी होगी। यही मनुष्यों को धरती पर अजर-अमर रखने में सक्षम होगी।
हम सचेत हो जाएं। अभी भी हमारे पास वक्त है। गृह मंत्रालय की ओर से सभी राज्य सरकारों को यह निर्देश देना आवश्यक था कि वे लॉकडाउन का सख्ती से पालन कराने के साथ ही हर तरह के धार्मिक एवं सांस्कृतिक आयोजनों पर भी रोक लगाएं।
इस निर्देश की जरूरत इसलिए बढ़ गई थी, क्योंकि एक तो देश के कुछ हिस्सों में लॉकडाउन के प्रति अपेक्षित गंभीरता का परिचय नहीं दिया जा रहा है और दूसरे, आने वाले दिनों में बैसाखी, रंगोली बिहू, विशु, पोइला बैसाख, संक्राति आदि पर्व हैं।
वास्तव में राज्य सरकारों और उनके प्रशासन से ज्यादा आम लोगों को यह समझने की जरूरत है कि जब तक कोरोना वायरस के संक्रमण का खतरा टल नहीं जाता तब तक ऐसा कुछ नहीं किया जाना चाहिए जिससे किसी भी तरह का जमावड़ा लगे।
कोई भी इससे अनभिज्ञ नहीं हो सकता कि दिल्ली के निजामुद्दीन इलाके में तब्लीगी जमात के जमावड़े ने देश को कैसी मुश्किल में डाल दिया है?
यदि कोरोना के खिलाफ लड़ाई कठिन हो गई है तो इस जमात के गैर जिम्मेदाराना रवैये के कारण ही।
नि:संदेह धार्मिक, सांस्कृतिक पर्वों और उनसे जुड़े किस्म-किस्म के आयोजनों की अपनी एक महत्ता है, लेकिन कोरोना वायरस के संक्रमण का खतरा जिस तरह सिर उठाए हुए है उसे देखते हुए समझदारी इसी में है कि ये आयोजन घर पर ही रहकर प्रतीकात्मक तरीके से मनाए जाएं।
नि:संदेह ग्रामीण इलाकों में फसल कटाई का काम तो करना ही होगा, लेकिन पूरी सावधानी के साथ। चूंकि हर तरह का जमावड़ा कोरोना वायरस के संक्रमण को बेलगाम करने वाला साबित हो सकता है
इसलिए यह भी जरूरी है कि राजनीतिक और सामाजिक समूह भी यह समझें कि उनकी ओर से ऐसा कुछ न किया जाए जिससे कहीं पर भी भीड़ जुटे।
इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि कही-कहीं लॉकडाउन से प्रभावित लोगों की मदद के नाम पर ऐसे समूहों की ओर से जाने-अनजाने भीड़ जुटाने वाले काम कर दिए जा रहे हैं।
इसी तरह कई स्थानों पर सब्जी मंडियों अथवा राशन की दुकानों में भीड़ जुट जा रही है।
मानवता के लिए संभलने का वक्त
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