स्वामी दयानंद सरस्वती के बारे में 20 अज्ञात तथ्य : Swami Dayanand Saraswati
मूल नक्षत्र में जन्म होने के कारण उनका नाम मूलशंकर रखा गया था, उनके पिता कर्षनलाल जी तिवारी थे और उनकी माता का नाम यशोदाबाई था।राजपुताना न्यूज़ ऐप डाउनलोड करें
महर्षि दयानंद सरस्वती का जन्म 12 फरवरी 1824 को हुआ था। उनका जन्म भारत में गुजरात के भूतपूर्व मोरवी राज्य के टकारा गाँव में हुआ था।
मूल नक्षत्र में जन्म होने के कारण उनका नाम मूलशंकर रखा गया था, उनके पिता कर्षनलाल जी तिवारी थे और उनकी माता का नाम यशोदाबाई था।
क्योंकि उनके परिवार की धर्म मे अत्यंत रूचि थी, इसलिए बालक मूलशंकर ने बहुत ही कम उम्र में धार्मिक अनुष्ठान, भक्ति, पूजा पाठ और उपवास का महत्व सीख लिया।
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1845 से 1869 तक एक भक्त के रूप में उन्होंने अनेक मंदिरों का दौरा किया, ऋषियों और योगियों के साथ अध्यन किया परन्तु कही भी उन्हें मृत्यु तथा जीवन से जुड़ें उनके सभी सवालों का जवाब नहीं मिला।
अत: मूलशंकर उनके शिष्य बन गए| स्वामी विरजानंद दंडिधा ने उन्हें सीधे वेदों से ज्ञान प्राप्त करने का निर्देश दिया।
जब मूलशंकर शिक्षा पूरी हुई और उनका आश्रम छोड़ने का समय आया तब स्वामी विरजानंद दंडिधा ने मूलशंकर को पूरे समाज में वैदिक ज्ञान फैलाने का प्रण लिया और उन्हें ऋषि दयानंद के रूप में प्रतिष्ठित किया।
आज आर्य समाज न केवल भारत में बल्कि दुनिया के अन्य हिस्सों में भी बहुत सक्रिय है।
महर्षि दयानंद सरस्वती ने दृढ़ता से माना कि हिंदू धर्म अपने संस्थापक सिद्धांतों से विचलित हो गया था और उनका जीवन वैदिक विचारधाराओं को पुनर्जीवित करने के लिए समर्पित था।
वह 1876 में ब्रिटिश शासन के खिलाफ भारत की स्वतंत्रता के लिए आवाज उठाने वाले पहले भारतीय थे।
महर्षि दयानंद सरस्वती कभी भी राजनीति में सीधे तौर पर शामिल नहीं थे, लेकिन उन्होंने बड़ी संख्या में स्वतंत्रता सेनानियों जैसे राम प्रसाद बिस्मिल, सुभाष चंद्र बोस, भगत सिंह और लाला लाजपत राय को प्रभावित और प्रेरित किया।
उनकी राजनीतिक टिप्पणियां स्वतंत्रता के लिए भारत के संघर्ष के दौरान कई राजनीतिक नेताओं के लिए प्रेरणा का स्रोत थीं।
1. महर्षि दयानंद सरस्वती ने 7 अप्रैल 1875 को बॉम्बे में आर्य समाज की स्थापना की।
2. महर्षि दयानंद सरस्वती के दर्शन को उनके तीन प्रसिद्ध योगदान "सत्यार्थ प्रकाश", "वेद भाष्य भूमिका" और वेद भाष्य से जाना जा सकता है।
3. महर्षि दयानंद सरस्वती ने केवल वेदों की शिक्षाओं को फिर से स्थापित करने का लक्ष्य ही नहीं रखा था
4. महर्षि दयानंद सरस्वती एक भारतीय दार्शनिक, सामाजिक नेता और आर्य समाज के संस्थापक तो थे ही इसीके साथ साथ उन्हें आधुनिक भारत के निर्माताओं में से एक माना जाता है।
5. महर्षि दयानंद सरस्वती ने गुरुकुलों की स्थापना की जहां उनके अनुयायियों ने वेदों के सिद्धांतों के बारे में सीखा।
8. महर्षि दयानंद सरस्वती ने सभी के लिए समान अधिकार देने का पुरजोर समर्थन किया| उन्होंने सभी वर्गों को समान अधिकार देने की बात रखी और वर्ण भेद का विरोध किया।
9. आर्य समाज कार्यक्रम ने 1880 के दशक में विधवा पुनर्विवाह और महिलाओं की शिक्षा का समर्थन किया।
10. महर्षि दयानंद सरस्वती अंधविश्वास और जाति अलगाव जैसी कई अन्य सामाजिक बुराइयों के खिलाफ थे।
1. प्रत्येक मनुष्य को सच्चा ज्ञान प्राप्त करना जरूरी है और परमात्मा ही सच्चा ज्ञान का स्रोत है।
2. परमात्मा सर्वशक्तिमान, निराकार, सर्वव्यापी, दयालु, अंतर्यामी तथा अमर है। परमात्मा ही सृष्टि की रचना करने वाला है। इसलिए केवल परमात्मा ही पूजने के योग्य है।
3. प्रत्येक आर्य को अपना कार्य सोच समझकर करना चाहिए। आर्य समाज के लोगो को अनुचित कार्य से दूर रहना चाहिए।
4. समस्त संसार की भलाई करना आर्य समाज का परम धर्म और मुख्य उद्देश्य है। इस उद्देश्य को ध्यान में रखकर लोगों की शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति की और ध्यान दिया जाना चाहिए।
5. प्रत्येक मनुष्य को सभी संसार के जीवो के साथ प्यार और हमदर्दी का व्यवहार करना चाहिए।
6. लोगो को अज्ञानता का नाश करना चाहिए, और चारों तरफ ज्ञान का प्रसार करना चाहिए।
7. प्रत्येक व्यक्ति को खुद से संबंधित निजी मामलों स्वतंत्रता होनी चाहिए, परंतु उस व्यक्ति को समाज से संबंधित मामलों में रुकावट नहीं डालनी चाहिए।
8. वेद सभी सच्चे ज्ञान के शास्त्र हैं। यह हम सभी का सर्वोपरि कर्तव्य है कि हम उन्हें पढ़ें, पढ़ाएं और सुनाएं और सुनाएं।
9. प्रत्येक आर्य समाज के लोगों को अपनी उन्नति से संतुष्ट नहीं रहना चाहिए। आर्य समाज के लोगों को दुसरो की उन्नति में खुद की उन्नति समझनी चाहिए।
10. लोगों को सच बोलना चाहिए तथा सच को ग्रहण करना चाहिए। लोगों को झूठ का त्याग करना चाहिए।
उन दिनों स्वामी जी महाराज जसवन्त सिंह के निमन्त्रण पर जोधपुर गये हुए थे।
Written By: Pooja Sharma
महर्षि दयानंद सरस्वती कौन थे?
महर्षि दयानंद सरस्वती प्रारंभिक जीवन, परिवार और शिक्षा
महर्षि दयानंद सरस्वती का जन्म 12 फरवरी 1824 को हुआ था। उनका जन्म भारत में गुजरात के भूतपूर्व मोरवी राज्य के टकारा गाँव में हुआ था।
मूल नक्षत्र में जन्म होने के कारण उनका नाम मूलशंकर रखा गया था, उनके पिता कर्षनलाल जी तिवारी थे और उनकी माता का नाम यशोदाबाई था।
मूलशंकर के पिता एक कर-कलेक्टर के पद पर आसीन थे उनका जन्म एक समृद्ध और प्रभावशाली ब्राह्मण परिवार में हुआ था| उनका परिवार भगवान शिव का अनन्य भक्त था।
क्योंकि उनके परिवार की धर्म मे अत्यंत रूचि थी, इसलिए बालक मूलशंकर ने बहुत ही कम उम्र में धार्मिक अनुष्ठान, भक्ति, पूजा पाठ और उपवास का महत्व सीख लिया।
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वे वैदिक ज्ञान के प्रसिद्ध विद्वान थे।
उन्होंने यज्ञोपवीत संस्कार 8 वर्ष की आयु में ही आरम्भ कर दिया था इसी से बालक मूल शंकर ने ब्राह्मणवाद की दुनिया में प्रवेश किया था।उन्होंने सभी धार्मिक अनुष्ठानों को पूरी तत्परता तथा ईमानदारी के साथ निभाया था| वह संस्कृत में अत्यंत कुशल थे।
धीरे-धीरे, बचपन में हुई कुछ घटनाओं ने मूलशंकर के जीवन को एक अलग अनुभव कराया। उनके जीवन में ऐसी बहुत सी घटनाएं हुईं, जिनके कारण उन्हें हिन्दू धर्म की पारम्परिक मान्यताओं और ईश्वर के विषय मे अधिक चिंतन करने विवश कर दिया।
ऐसी ही एक घटना एक बार शिवरात्रि के दिन घटी।
धीरे-धीरे, बचपन में हुई कुछ घटनाओं ने मूलशंकर के जीवन को एक अलग अनुभव कराया। उनके जीवन में ऐसी बहुत सी घटनाएं हुईं, जिनके कारण उन्हें हिन्दू धर्म की पारम्परिक मान्यताओं और ईश्वर के विषय मे अधिक चिंतन करने विवश कर दिया।
ऐसी ही एक घटना एक बार शिवरात्रि के दिन घटी।
बालक मूल शंकर हमेशा शिव रात्रि पर मंदिर में रात्रि जागरण के लिए पूरी रात जागते थे।
सारे परिवार के सो जाने के पश्चात् भी वे जागते रहे कि भगवान शिव आयेंगे और प्रसाद ग्रहण करेंगे।
उन्होंने एक चूहे को भगवान के प्रसाद को खाते हुए देखा यह देखने के बाद उन्होंने खुद से सवाल किया,
अगर भगवान खुद को अर्पित किए गए प्रसाद को एक छोटे से चूहे से नहीं बचा सकते हैं, तो वह मानवता की रक्षक कैसे करेंगे।
इस बात पर उन्होंने अपने पिता से बहस की और तर्क दिया कि हमें ऐसे असहाय ईश्वर की उपासना नहीं करनी चाहिए।
ऐसे ही एक और अन्य बड़ी घटना जब उनकी छोटी बहन की हैजा के कारण हुई मृत्यु के पश्चात् वह जीवन-मरण के विषय पर गहराई से चिंतन करने लगे और ऐसे प्रश्न करने लगे जिनका जवाब उनके माता पिता के पास नहीं था।
तब उनके माता-पिता ने उनका विवाह करने का निर्णय लिया परन्तु मूलशंकर ने निश्चय किया कि वह विवाह नहीं करेंगे और 1845 मे वह सच्चाई की खोज मे घर से निकल पड़े।
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महर्षि दयानंद सरस्वती ने जीवन के एक गहन परिप्रेक्ष्य और इसके अर्थ को खोजने के लिए लगभग 25 वर्षो का अत्यंत लंबा समय बिताया।
1845 से 1869 तक एक भक्त के रूप में उन्होंने अनेक मंदिरों का दौरा किया, ऋषियों और योगियों के साथ अध्यन किया परन्तु कही भी उन्हें मृत्यु तथा जीवन से जुड़ें उनके सभी सवालों का जवाब नहीं मिला।
उन्होंने हिमालय रिट्रीट में काफ़ी समय बिताया। अंत में, वह मथुरा पहुंचे जहां उनकी मुलाकात स्वामी विरजानंद दंडिधा से हुई।
उन्होंने अपने गुरु के मार्गदर्शन में वेदों का अध्ययन किया। अपने अध्ययन के दौरान उन्हें जीवन, मृत्यु और जीवन के बारे में अपने सभी सवालों का उचित जवाब प्राप्त हुआ।
जब मूलशंकर शिक्षा पूरी हुई और उनका आश्रम छोड़ने का समय आया तब स्वामी विरजानंद दंडिधा ने मूलशंकर को पूरे समाज में वैदिक ज्ञान फैलाने का प्रण लिया और उन्हें ऋषि दयानंद के रूप में प्रतिष्ठित किया।
ऋषि दयानंद सरस्वती ने स्वामी विरजानंद दंडिधा को वचन दिया कि वे अपना पूरा जीवन वेदों की शिक्षा का विस्तार करने के लिए समर्पित करेंगे।
महर्षि दयानंद सरस्वती पूरी तरह से आश्वस्त थे कि ज्ञान की कमी के कारण ही हिंदू धर्म का पतन हो रहा है।
अत: उन्होंने ने 7 अप्रैल 1875 को आर्य समाज की स्थापना की।
अत: उन्होंने ने 7 अप्रैल 1875 को आर्य समाज की स्थापना की।
आज आर्य समाज न केवल भारत में बल्कि दुनिया के अन्य हिस्सों में भी बहुत सक्रिय है।
संयुक्त राज्य अमेरिका, कनाडा, त्रिनिदाद, मैक्सिको, यूनाइटेड किंगडम, नीदरलैंड, केन्या, तंजानिया, युगांडा, दक्षिण अफ्रीका, मलावी, मॉरीशस, पाकिस्तान, बर्मा, थाईलैंड, सिंगापुर, हांगकांग और ऑस्ट्रेलिया कुछ ऐसे देश हैं जहां आर्य समाज की शाखाएँ।
वह एक सार्वभौमिक रूप से प्रतिष्ठित व्यक्ति थे और अमेरिकी अध्यात्मविद एंड्रयू जैक्सन डेविस ने उन्हें महर्षि दयानंद "ईश्वर का पुत्र" कहा था।
स्वामी दयानंद सरस्वती क्यों प्रसिद्ध हैं?
महर्षि दयानंद सरस्वती ने 7 अप्रैल 1875 को बॉम्बे में आर्य समाज की स्थापना की।
उनका मानना था कि सभी कार्य मानव जाति को लाभ पहुंचाने के उद्देश्य से ही किए जाने चाहिए।
महर्षि दयानंद सरस्वती ने दृढ़ता से माना कि हिंदू धर्म अपने संस्थापक सिद्धांतों से विचलित हो गया था और उनका जीवन वैदिक विचारधाराओं को पुनर्जीवित करने के लिए समर्पित था।
वह 1876 में ब्रिटिश शासन के खिलाफ भारत की स्वतंत्रता के लिए आवाज उठाने वाले पहले भारतीय थे।
महर्षि दयानंद सरस्वती कभी भी राजनीति में सीधे तौर पर शामिल नहीं थे, लेकिन उन्होंने बड़ी संख्या में स्वतंत्रता सेनानियों जैसे राम प्रसाद बिस्मिल, सुभाष चंद्र बोस, भगत सिंह और लाला लाजपत राय को प्रभावित और प्रेरित किया।
भगत सिंह लाहौर के दयानंद एंग्लो वैदिक स्कूल के पूर्व छात्र थे। उनके दादा अर्जुन सिंह ने भी आर्य समाज का अनुसरण किया था।
उनकी राजनीतिक टिप्पणियां स्वतंत्रता के लिए भारत के संघर्ष के दौरान कई राजनीतिक नेताओं के लिए प्रेरणा का स्रोत थीं।
वह एक महान देशभक्त थे, 1876 में उन्होंने भारतीयों को स्वराज के लिए "भारतीयों के लिए भारत" का पहला संदेश दिया, जिसे बाद में बाल गंगाधर तिलक ने अपनाया और स्वराज्य मेरा जन्म सिद्ध अधिकार हैं का नारा दिया।
स्वामी दयानंद सरस्वती ने हमारे समाज में किस प्रकार योगदान दिया?
1. महर्षि दयानंद सरस्वती ने 7 अप्रैल 1875 को बॉम्बे में आर्य समाज की स्थापना की।
यह एक हिंदू सुधार आंदोलन था, आर्य समाज का मुख्य धर्म मानव धर्म था जिसमे परोपकार, मानव सेवा, कर्म एवं ज्ञान को मुख्य आधार बनाया गया था जिनका उद्देश्य मानसिक, शारीरिक एवम सामाजिक उन्नति था।
2. महर्षि दयानंद सरस्वती के दर्शन को उनके तीन प्रसिद्ध योगदान "सत्यार्थ प्रकाश", "वेद भाष्य भूमिका" और वेद भाष्य से जाना जा सकता है।
इसके अलावा उनके द्वारा संपादित पत्रिका "आर्य पत्रिका" भी उनके विचारो को दर्शाती है।
3. महर्षि दयानंद सरस्वती ने केवल वेदों की शिक्षाओं को फिर से स्थापित करने का लक्ष्य ही नहीं रखा था
अपितु वह वेदों के सिद्धांतों के बारे में लोगों में ज्ञान फैलाना चाहते थे और उन गुणों को बढ़ावा देना चाहते थे जिन्हें वे वास्तव में दिव्य मानते थे।
4. महर्षि दयानंद सरस्वती एक भारतीय दार्शनिक, सामाजिक नेता और आर्य समाज के संस्थापक तो थे ही इसीके साथ साथ उन्हें आधुनिक भारत के निर्माताओं में से एक माना जाता है।
5. महर्षि दयानंद सरस्वती ने गुरुकुलों की स्थापना की जहां उनके अनुयायियों ने वेदों के सिद्धांतों के बारे में सीखा।
पहला दयानंद एंग्लो वैदिक हाई स्कूल 1 जून, 1886 को स्थापित किया गया था, जिसमें लाला हंसराज मुख्याध्यापक थे।
पाठ्यक्रम में वेदों और समकालीन अंग्रेजी शिक्षा का ज्ञान था।
उनकी मृत्यु के बाद, उनके अनुयायियों ने दयानंद एंग्लो वैदिक कॉलेज ट्रस्ट एंड मैनेजमेंट सोसायटी की स्थापना की।
6. महर्षि दयानंद सरस्वती ने अनुमानित 60 पुस्तकें लिखीं, उनमें से सबसे महत्वपूर्ण “सत्यार्थ प्रकाश “ (सत्य का प्रकाश) पुस्तक थी।
7. महर्षि दयानंद सरस्वती 1876 में ब्रिटिश शासन के खिलाफ भारत की स्वतंत्रता के लिए आवाज उठाने वाले पहले भारतीय थे।
8. महर्षि दयानंद सरस्वती ने सभी के लिए समान अधिकार देने का पुरजोर समर्थन किया| उन्होंने सभी वर्गों को समान अधिकार देने की बात रखी और वर्ण भेद का विरोध किया।
9. आर्य समाज कार्यक्रम ने 1880 के दशक में विधवा पुनर्विवाह और महिलाओं की शिक्षा का समर्थन किया।
उन्होंने माना कि एक शिक्षित आदमी को समाज के समग्र लाभ के लिए एक शिक्षित पत्नी की आवश्यकता होती है अत: हर स्त्री का शिक्षित होना अनिवार्य है।
उन्होंने बाल विवाह तथा सतीप्रथा का पुरजोर विरोध किया।
10. महर्षि दयानंद सरस्वती अंधविश्वास और जाति अलगाव जैसी कई अन्य सामाजिक बुराइयों के खिलाफ थे।
उनका का एक स्वप्न था, जो आज तक अधुरा हैं, वे सभी धर्मों और उनके अनुयायी को एक ही ध्वज तले बैठा देखना चाहते थे।
उनका मानना था आपसी लड़ाई का फायदा सदैव तीसरा उठाता हैं, इसलिए इस भेदभाव को दूर करना अतिआवश्यक हैं।
आर्य समाज के मुख्य सिद्धांत क्या थे?
उन्होंने आर्य समाज के 10 महत्वपूर्ण सिद्धांत लिखे जो दुनिया भर में लाखों लोगों द्वारा अनुसरण किए जा रहे हैं।
1. प्रत्येक मनुष्य को सच्चा ज्ञान प्राप्त करना जरूरी है और परमात्मा ही सच्चा ज्ञान का स्रोत है।
2. परमात्मा सर्वशक्तिमान, निराकार, सर्वव्यापी, दयालु, अंतर्यामी तथा अमर है। परमात्मा ही सृष्टि की रचना करने वाला है। इसलिए केवल परमात्मा ही पूजने के योग्य है।
3. प्रत्येक आर्य को अपना कार्य सोच समझकर करना चाहिए। आर्य समाज के लोगो को अनुचित कार्य से दूर रहना चाहिए।
4. समस्त संसार की भलाई करना आर्य समाज का परम धर्म और मुख्य उद्देश्य है। इस उद्देश्य को ध्यान में रखकर लोगों की शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति की और ध्यान दिया जाना चाहिए।
5. प्रत्येक मनुष्य को सभी संसार के जीवो के साथ प्यार और हमदर्दी का व्यवहार करना चाहिए।
6. लोगो को अज्ञानता का नाश करना चाहिए, और चारों तरफ ज्ञान का प्रसार करना चाहिए।
7. प्रत्येक व्यक्ति को खुद से संबंधित निजी मामलों स्वतंत्रता होनी चाहिए, परंतु उस व्यक्ति को समाज से संबंधित मामलों में रुकावट नहीं डालनी चाहिए।
8. वेद सभी सच्चे ज्ञान के शास्त्र हैं। यह हम सभी का सर्वोपरि कर्तव्य है कि हम उन्हें पढ़ें, पढ़ाएं और सुनाएं और सुनाएं।
9. प्रत्येक आर्य समाज के लोगों को अपनी उन्नति से संतुष्ट नहीं रहना चाहिए। आर्य समाज के लोगों को दुसरो की उन्नति में खुद की उन्नति समझनी चाहिए।
10. लोगों को सच बोलना चाहिए तथा सच को ग्रहण करना चाहिए। लोगों को झूठ का त्याग करना चाहिए।
सरस्वती दयानंद की मृत्यु कब हुई?
महर्षि दयानंद सरस्वती ने एक व्यक्ति के रूप में सामाजिक बीमारियों और पुरानी धार्मिक प्रथाओं का दृढ़ता से विरोध किया।
अंग्रेजी हुकूमत को स्वामी जी से भय सताने लगा था। स्वामी जी के विचारों का लोगो पर गहरा प्रभाव था।
स्वामी जी ने कभी अंग्रेजी हुकूमत के सामने हार नहीं मानी थी, बल्कि उन्हें मुँह पर कटाक्ष किए जिस कारण अंग्रेजी हुकूमत स्वामी जी की हत्या के प्रयास करने लगी।
कई बार स्वामी जी को जहर दिया गया, लेकिन स्वामी जी योग में पारंगत थे और इसलिए उन्हें कुछ नहीं हुआ, जब तक कि उनका खुदका रसोइया उस षड़यंत्र में शामिल नहीं हुआ।
उन दिनों स्वामी जी महाराज जसवन्त सिंह के निमन्त्रण पर जोधपुर गये हुए थे।
वहां उनके नित्य ही प्रवचन होते थे। महाराज जसवन्त सिंह भी उनके चरणों में बैठकर उनके प्रवचन सुनते थे।
स्वामी जी ने उनके महल मे एक नन्हीं नामक वेश्या का अनावश्यक हस्तक्षेप और महाराज जसवन्त सिंह पर उसका अत्यधिक प्रभाव देखा।
स्वामी जी को यह बहुत बुरा लगा। उन्होंने महाराज को इस बारे में समझाया तो उन्होंने नन्हीं से सम्बन्ध तोड़ लिए।
इससे नन्हीं स्वामी जी के विरुद्ध हो गई। उसने स्वामी जी के रसोइए कलिया उर्फ जगन्नाथ को अपनी तरफ मिला कर उनके दूध में पिसा हुआ कांच डलवा दिया।
जिससे स्वामी जी का स्वास्थ बहुत ख़राब हो गया। उसी समय इलाज प्रारम्भ हुआ, लेकिन स्वामी जी को राहत नही मिली और 30 अक्टूबर 1883 को अजमेर, राजपुताना में उनकी मृत्यु हो गई।
महर्षि दयानंद सरस्वती ने अपने जीवनकाल में जिन स्थानों का दौरा किया, उन्हें सांस्कृतिक रूप से बदल दिया गया।